आज लिखने बैठा हूँ
अरसे बीते हैं
अब जब कलम
कोसों दूर है
सालों से जिन्होने
शब्दों की रोशनी नहीं देखी
अब उन पुरानी बातों पर से
दिमागी परतें
आज उतारने बैठा हूँ
कहते फ़िरते हैं
शौक पाला है हमने
लिखने का
आज खुद ही खुद को खुद से
खुदा से और इस खुदी से
उपर उठाने बैठा हूँ
इक अधजला कागज़ हूँ
या इक सूखी दवात
इक टूटी कलम
या खोया हुआ खलायात
तुम्हारे सवालों में उलझा हुआ
इक जवाब
या बेचैन नींदों में खोया हुआ
इक अनजाना ख्वाब…
आज मैं हर इल्ज़ाम
मिटाने बैठा हूँ