बीते पलों में खोया जा रहा हूँ,
सूखे आँसूओं में डूबा जा रहा हूँ,
दिल ही दिल कोसता हूँ किसी को
धुंधली रातों में सोया जा रहा हूँ।
ना ना… डरो मत…
किसी देवदास से नहीं मिले तुम,
हैँ और भी लोग दुखी यहाँ
मैं तो बस एक छोटी सी
चुभन से उठे दर्दों के
एकाकीकृत बीज को
अपने से दूर कहीं
बोया जा रहा हूँ।

ठीक वैसी ही रात है,
वैसा ही अंधियारा…
फ़र्क सिर्फ़ इतना कि
इस बार सुबह का इन्त्ज़ार है
और आँखों मे उन्हीं
टूटे दर्पण के टुकडों की चमक,
शायद एक उम्मीद है
कि नयी सुबह का पंछी
एक नया पैगाम लायेगा।

फिर से…
चुप हूँ, खामोश हूँ, बेज़ुबान हूँ
पर मेरा विश्वास
मेरे ही अविश्वास से
जीत गया है,
और अपनी नियति को
ठुकराते ठुकराते जाने…
कितना अरसा बीत गया है… ॥