जानें कहाँ गये वो दिन
जब लिखना ही अभिरुचि था
ज़रूरत भी और कला भी
वो वक़्त कुछ और था
जब कलम ही ज़ुबान थी
और कोरा काग़ज़
मेरा अव्याप्त संसार
टूटे बिखरे से जीवन में
तन्हाई को खुद में सिमट जाने से रोकता
वो बंद सा
खुद ही का शिष्टाचार
अभी खुश हूँ
आज़ाद हूँ
देखता हूँ चारों ओर
और सोचता हूँ
की कितनी बिखरी हुई है
ये व्यवस्थित सी दुनिया
जहाँ खुद को थोड़ा वक़्त दे पाना भी
एक उपलब्धि से कम नहीं और
उपलब्धियों के पीछे भागना ही
दिनचर्या में आम है…
खाली सा हूँ या बहुत भरा
सहमा हुआ हूँ या बहुत डरा
सब कुछ है और सब हैं
फिर भी अकेला सा हूँ मैं
खुद बिन
जाने कहाँ गये वो दिन…